हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम और उनके ज़माने के ख़लीफ़ाओं के बीच होने वाले जंग में जिसे ज़ाहिरी और निहित दोनों रूप में फ़तह मिली, वह इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम थे। उनके बारे में बात करते समय यह बिंदु हमारे मद्देनज़र रहना चाहिए।
इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम की इमामत के दौरान एक के बाद एक छह ख़लीफ़ा आए और मौत की नींद सो गए।
इनमें आख़िरी शासक मोतज़्ज़ था। जैसा कि इमाम ने फ़रमाया, मोतज़्ज़ ने इमाम अलैहिस्सलाम को शहीद किया और कुछ ही दिनों के बाद ख़ुद भी मर गया। इनमें ज़्यादातर शासक बेइज़्ज़ती की मौत मरे हैं। एक अपने बेटे के हाथों मारा गया, दूसरे को उसके भतीजे ने क़त्ल कर दिया। इस तरह अब्बासी शासन बिखर गया। जबकि दूसरी ओर अहलेबैत के चाहने वालों की तादाद बढ़ती गयी। इमाम अली नक़ी अलैहिलस्सलाम और इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के ज़माने में, बहुत ही कठिन हालात के बावजूद, पैग़म्बर के ख़ानदान के लोगों से मुहब्बत करने वालों की तादाद दिन ब दिन बढ़ती गयी और वह मज़बूत होते गए।
हज़रत इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम ने 42 साल की ज़िंदगी गुज़ारी। जिसमें 20 साल सामर्रा में गुज़रे जहाँ उनके खेत थे और इस शहर में वह काम करते और ज़िन्दगी गुज़ारते थे। सामर्रा अस्ल में एक फ़ौजी छावनी की तरह था जिसे मोतसिम ने बसाया ताकि अपने क़रीबी तुर्क ग़ुलामों को, आज़रबाइजान और दूसरे इलाक़ों में रहने वाले हमारे तुर्क नहीं, बल्कि जो तुर्किस्तान, समरक़न्द, मंगोलिया और पूर्वी एशिया से लाए गए थे, उनके सामर्रा में रखे। ये लोग चूंकि नए नए मुसलमान हुए थे, इसलिए इमामों और मोमिन बंदों को नहीं पहचानते थे, बल्कि इस्लाम को भी अच्छी तरह नहीं समझते थे। यही वजह थी कि वे लोगों के लिए परेशानियां खड़ी करते थे और अरबों यानी बग़दाद के लोगों से उनके बहुत मतभेद हो गए थे।
इसी सामर्रा शहर में हज़रत इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम के ज़माने में बड़ी तादाद में शीया ओलमा इकट्ठा हो गए और इमाम अलैहिस्सलाम ने उनके ज़रिए इमामत का पैग़ाम पूरे इस्लामी जगत में ख़त वग़ैरह के रूप में पहुंचाने में कामयाबी हासिल की।
क़ुम, ख़ुरासान, रय, मदीना, यमन, दूरदराज़ के इलाक़ों और पूरी दुनिया में इन्हीं लोगों ने शिया मत को फैलाया और इस मसलक पर अक़ीदा रखने वालों की तादाद दिन ब दिन बढ़ाने में कामयाबी हासिल की। हज़रत इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम की शहादत के बारे में एक मशहूर हदीस है जिसकी इबारत से पता चलता है कि सामर्रा में बड़ी तादाद में शिया इस तरह इकट्ठा हो गए थे कि शासक के कारिंदे उन्हें पहचान नहीं पाते थे, क्योंकि वे अगर उन्हें पहचान जाते तो उन सबको मरवा देते, लेकिन चूंकि इन लोगों ने अपना एक मज़बूत नेटवर्क बना लिया था इसलिए दरबार के कारिंदे भी इन लोगों की पहचान नहीं कर सकते थे।
इन महान हस्तियों यानी इमामों की एक दिन की मेहनत बरसों तक असर रखती थी। उनकी पाकीज़ा ज़िन्दगी का एक दिन, बरसों तक काम करने वाले एक गुट के काम से ज़्यादा समाज पर असर डालता था। इमामों ने इस तरह दीन की हिफ़ाज़त की है वरना जिस धर्म के ध्वजवाहक मुतवक्किल, मोतज़्ज़, मोतसिम और मामून जैसे लोग हों और जिसके धर्मगुरू यहया बिन अकसम जैसे लोग हों जो दरबारी धर्मगुरू होने के साथ साथ भ्रष्ट भी थे, ऐसे धर्म को तो बिल्कुल बचना ही नही चाहिए था, शुरू के दिनों में उसकी जड़ उखड़ जाती और उसका अंत हो जाना चाहिए था।
इमामों की जद्दो जेहद और कोशिश से न सिर्फ़ शिया मत बल्कि पवित्र क़ुरआन, इस्लाम और धार्मिक शिक्षाओं की रक्षा हुयी। ये है अल्लाह के सच्चे बंदों और उसके दोस्तों की ख़ूबियां। अगर इस्लाम में ऐसे हिम्मत वाले लोग न होते तो बारस सौ तेरह सौ साल के बाद उसे फिर से नई ज़िन्दगी नहीं मिलती और वह इस्लामी जागरुकता पैदा करने में कामयाब न होता। बल्कि उसे धीरे-धीरे ख़त्म हो जाना चाहिए था।
अगर इस्लाम के पास ऐसी हस्तियां न होतीं जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम के बाद इन महान इस्लामी शिक्षाओं को इंसानी और इस्लामी इतिहास में प्रचलित कराया, तो इस्लाम ख़त्म हो जाता और उसकी कोई चीज़ बाक़ी न रहती। अगर कुछ बच भी जाता तो उसकी शिक्षाओं में से कुछ भी नहीं बचना चाहिए था। यहूदी और ईसाई धर्म की तरह कि अब उनकी मूल शिक्षाओं में क़रीब क़रीब कुछ भी बाक़ी नहीं बचा है।
यह चीज़ कि पवित्र क़ुरआन सही रूप में बाक़ी रह जाए, पैग़म्बरे इस्लाम के कथन बाक़ी रह जाएं, इतने सारे हुक्म और शिक्षाएं बाक़ी रह जाएं और इस्लामी शिक्षाएं एक हज़ार साल बाद, इंसान की ओर से पेश की गयीं शिक्षाओं से आगे बढ़ कर ख़ुद को ज़ाहिर करें, तो यह मामूली बात नहीं है बल्कि असाधारण बात है जिसके पीछ कड़ा संघर्ष है। अलबत्ता इस महान कारनामे की राह में तकलीफ़, यातनाएं, क़ैद की कठिनाइयां, क़त्ल के ख़तरे जैसी बातें भी थीं लेकिन इमामों ने कभी इन चीज़ों को अहमियत नहीं दी।